यह वर्ष 1982 की बात है कि उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में मेरे ननिहाल के नजदीकी कस्बे बैरिया में एक सिनेमाहॉल खुला। उसके मैनेजर बनाए गए थे हमारे रिश्ते के एक चाचा। उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में सिनेमा देखने को चरित्र से जोड़कर देखा जाता था। ऐसी मान्यता थी कि जो सिनेमा देखता है और खासकर अगर वह छात्र हुआ तो समझो उसकी पढ़ाई-लिखाई गई तेल लेने... शायद शिक्षा से सिनेमा के बने इसी आँख मिचौली वाले रिश्ते की वजह से उन दिनों गाँवों में सिनेमा देखने को चरित्रहीनता की तरह देखा जाता था। लेकिन सबसे बड़ी बात यह कि ऐसी सोच के बावजूद चरित्रहीनता के इस दलदल में डूबने की इच्छा ज्यादातर दिलों की होती थी। अगर दिल नौजवान हुआ तो पूछना ही क्या उन दिनों किशोरवास्था से गुजर रहा अपना मन भी चरित्रहीन बनने की दबी-छुपी चाहत रखे हुए था। तब तक जिला मुख्यालय तक का दर्शन महज साल में एक बार, तब ही हो पाता था, जब ददरी मेला लगता था। अलबत्ता गाँव और पड़ोस के कस्बे के स्कूल तक अपनी जिंदगी सिमटी और फैली हुई थी। साल में एक-आध मौके मामा के गाँव या ऐसी ही किसी रिश्तेदारी में तब जाने को मौका मिल पाता था, जब वहाँ शादी-ब्याह या कोई आयोजन होता। ननिहाल जाने के क्रम में बैरिया कस्बा भी पड़ता था, लिहाजा अपनी उम्मीदें बढ़ गई थीं कि अब तो सिनेमा का दर्शन जरूर हो जाएगा और हुआ भी। उन दिनों केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास 'कोहबर की शर्त' पर आधारित फिल्म 'नदिया के पार' की धूम थी। दिलचस्प यह है कि बहुत कम लोगों को पता था कि जिस 'नदिया के पार' को देखने के लिए वे भगोना-थाली, आटा-सत्तू और चिउड़ा बाँधकर ले जा रहे हैं, उसकी कहानी का लेखक उन्हीं के इलाके की करईल माटी का ही सपूत है। बहरहाल एक बार चाचा के सिनेमा हॉल पर जाने का मौका मिला, तब उसका नाम धरम टॉकीज हुआ करता था। टॉक यानी बोलने वाली तस्वीरों के ही चलते शायद सिनेमा हॉल को टॉकीज कहने का चलन बढ़ा। वहाँ पर 'नदिया के पार' सिनेमा चल रहा था। उस सिनेमा की धूम ऐसी थी कि दूर-दूर से लोग चले आ रहे थे। भीड़ देखकर टिकट के कालाबाजारियों की भी बन आई थी। तब दो-तीन और चार रूपए के टिकट होते थे। नीचे सेकंड क्लास दो रुपये का, रियर स्टाल या फर्स्ट क्लास तीन रुपये का और बॉलकनी चार रुपये का। सस्ती के जमाने में 'नदिया के पार' और उसकी गूंजा साधना सिंह का क्रेज ऐसा कि लोग दो तीन और चार की जगह पाँच-आठ और दस तक देने को तैयार होते थे लेकिन टिकट था कि मिलता ही नहीं। तब लोगों ने नायाब तरीका निकाल लिया। घर से भगोना, बर्तन और घासलेट से चलने वाला स्टोव लेकर आने लगे। साथ में सत्तू-आटा, चिउड़ा, चावल, दाल और आलू-बैंगन लेकर लोग सिनेमा हॉल पहुँचने लगे। तब रात नौ से बारह का शो कस्बाई सिनेमाघरों में कम चलता था। तब गाँवों में आज की तरह कारें और घर-घर बाइकें नहीं होती थीं। लिहाजा देर रात सिनेमा देखकर लोग वहीं बगल के मैदान या जहाँ ठांव मिला लिट्टी-चोखा बनाते, दाल-भात बनाते-खाते और सो जाते। ऐसी हालत में देर रात का भी टिकट नहीं मिलता तो लोग अगली सुबह का इंतजार करते। भीड़ देखकर सिनेमा हॉल वालों ने सुबह का भी शो करना शुरू कर दिया।
आज भी फिल्में हिट होती हैं। अब तो फिल्मों के हिट होने का पैमाना सौ करोड़ की कमाई वाले क्लब में शामिल होना बन गया है। लेकिन क्या फिल्मों का वह क्रेज बन पाया है, जो आज से ढाई-तीन दशक पहले तक था। इस सवाल का जवाब निश्चित ही ना में दिया जा सकता है। निश्चित तौर पर तब की तुलना में आज के लोगों के पास पैसे की ताकत बढ़ी है। उनकी खरीद क्षमता में बढ़ोत्तरी भी हुई है लेकिन क्या उसकी तुलना में सिनेमा का वैसा क्रेज बढ़ा है। ऐसा नहीं कि फिल्मों का क्रेज सिर्फ टॉकीज में प्रदर्शन पर ही था। 1991 में जब दूरदर्शन पर 'प्यासा' फिल्म दिखाई गई तो उन दिनों नवभारत टाइम्स के सहायक संपादक और प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज को लिखना पड़ा था कि कल रविवार की शाम दिल्ली की सड़कों पर ट्रैफिक कम था। तब दूरदर्शन पर रविवार शाम को फिल्में दिखाई जाती थीं। बाद में यह क्रम शुक्रवार और शनिवार की रात को भी शुरू हुआ। तब देश की रगों में उदारीकरण की हवा से गुजरा रक्त नहीं बह रहा था। तब जिंदगी में आज जैसी आपाधापी नहीं थी। लिहाजा तब शुक्रवार की रात से लेकर रविवार की शाम तक का इंतजार पूरे सप्ताह भर तक होता था। सिर्फ इसलिए कि फिल्में देखी जा सकें और उनका आनंद उठाया जा सके। घरों में बहुएँ भी सिनेमा वाले दिन रोटी-पानी पहले ही तैयार कर लेती थीं। राजकपूर के निधन के बाद के दूरदर्शन को याद कीजिए। उनकी फिल्मों का दस दिन का शो दूरदर्शन ने चलाया। कहा जाता है कि जिस 'मेरा नाम जोकर' को बनाने में राजकपूर बरबाद हो गए और वह उनके जीते-जी हिट नहीं हो पाई। वह उनके निधन के बाद हिट हो गई।
आज जमाना मल्टीप्लेक्स का है। मल्टीप्लेक्स का यह जमाना इसलिए भी आया, क्योंकि बाजार में जैसे ही वीडियो रिकॉर्डर आसानी से उपलब्ध हुआ, उसने सबसे पहला हमला टॉकीज पर ही किया। रही-सही कसर कांपैक्ट डिस्क यानी सीडी के आने से पूरी हो गई। जिन छोटे कस्बों में 'नदिया के पार', 'क्रांति', 'दूल्हा गंगा पार के', 'रूठ गइले सईंया हमार' देखने के लिए रोटी-पानी के इंतजाम के साथ भीड़ जुटती थी, उन कस्बों की छोड़िए, जिला मुख्यालय तक के टॉकीज को पूछने वाले अब कम ही बचे हैं। कस्बों के ये टॉकीज या तो अपने पुराने दिनों को याद करके आँसू बहा रहे हैं या फिर आलू-प्याज के गोदाम बन गए हैं। जिनके अंधेरों के बीच दो-ढाई दशक पहले तक सैकड़ों जोड़ी आँखें अपने दिल के साथ बैठी टकटकी लगाए रखती थीं, उनमें अब आलू-प्याज या फिर अनाज रखा जाता है। वह भी तब, जब ये इमारतें भाग्यशाली हुईं। अन्यथा कई को तो यह भी मयस्सर नहीं है। वीसीआर आने के शुरुआती दिनों में तो कस्बों के इनके जरिए फिल्में दिखाने का चलन शुरू हुआ। निश्चित तौर पर तब कैसेट महंगे होते थे, लिहाजा ज्यादातर फिल्में पाइरेटेड ही होती थीं और सस्ते में सुलभ होने लगीं। जब वीसीआर की खरीद आम आदमी की सीमाओं में आ गई तो तिरपाल टाँगकर फिल्में दिखाने के इस चलन पर भी डाका पड़ गया। अब तो हर फिल्म की सीडी बाजार में दस से बीस रुपये तक में उपलब्ध है। लिहाजा अब तो छोटे कस्बों में तिरपाल के पीछे फिल्में दिखाने का चलन भी ठप पड़ गया है।
चिंतनीय बात यह है कि उदारीकरण में पैसे तक पहुँच बढ़ने के बावजूद कस्बों के सिनेमाघर क्यों खत्म हो गए। इसकी बड़ी वजह यह है कि जिस अनुपात में पैसे की आवक बढ़ी है, उसकी तुलना में खर्च और उपभोक्तावाद भी बढ़ा है। छोटे शहरों और कस्बों की नियति भी ऐसी है कि वहाँ भी जिंदगी का संघर्ष कठिन और बड़ा हो गया है। लिहाजा कस्बाई टॉकीजों को चलाने और उनके रखरखाव का खर्च भी बढ़ा है। जाहिर है कि सस्ती दर पर टिकट मिलना भी मुश्किल हुआ है। टॉकीज संचालकों के लिए संभव ही नहीं है कि वे सस्ती दरों पर टिकट मुहैया कराएँ। जब उनकी कठिनाइयाँ बढ़ने लगीं तो उन्होंने पहले सेक्स और सेमी पोर्न फिल्में दिखाकर भीड़ जुटाने की कोशिशें शुरू कीं। तब मलयालम और हिंदी की सेमी पोर्न फिल्मों की बन आई थी। कस्बा ही क्यों, इलाहाबाद-वाराणसी जैसे शहरों तक के सिनेमा हॉलों के रात और सुबह के शो 'जंगली जवानी', 'जख्मी जवानी' जैसे शीर्षकों वाली फिल्मों से पटे रहने लगे। लेकिन जब ऐसी फिल्में भी सीडी में मिलने लगीं तो जैसे सिनेमा हॉलों की कमर ही टूट गई। इससे निकलने के लिए सिनेमा हॉल मालिकों ने यूनियनें बनानी शुरू कीं और अपने-अपने इलाकों की राज्य सरकारों से सिनेमा हॉलों के टिकटों में मनोरंजन करों में रियायत देने की माँग शुरू की। इसके बावजूद राज्यों को इससे कुछ लेना-देना चूँकि था नहीं, लिहाजा कस्बाई सिनेमा के चौक अपने आप खत्म होते चले गए। यहाँ याद कर लेना उचित ही है कि दूरदर्शनी विस्तार के दौर में सिनेमा देखने को चरित्र से जोड़ने की सामाजिक अवधारणा पर जबर्दस्त चोट पड़ी। अव्वल तो इसका फायदा सिनेमा हॉलों को होना चाहिए था। चूँकि इससे भी सस्ता माध्यम घर तक पहुँच गया था, लिहाजा डेढ़-दो सौ रुपये में पूरे घर को सिनेमा दिखाना ज्यादा सस्ता नजर आने लगा। वीसीआर के दौर में इतनी ही रकम के किराए पर पूरा मुहल्ला सिनेमा देख लेता था। इसकी कीमत छोटे शहरों और कस्बों के साथ ही बड़े शहरों के सिनेमाघरों तक को दर्शकों की बेरूखी के तौर पर चुकाना पड़ा।
आज का सवाल यह है कि इसी दौर में बड़े शहरों में मल्टीप्लेक्स क्यों चमक रहे हैं दरअसल मौजूदा व्यवस्था में पूंजी ज्यादातर बड़े शहरों के पास केंद्रित हो गई है। कमाई और रोजगार के साधन भी बड़े शहरों के पास ज्यादा है। उपभोक्तावाद ने रोजगार और पूंजी के गठजोड़ को अपनी ही सीमा में बाँधने का चक्र चला है। पहले की तरह अब कमाने वाला अपनी ज्यादातर रकम पीछे छोड़ आए अपने गाँव और घर को नहीं भेजता। बल्कि उसकी कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा महानगरीय परिधि में ही खर्च हो जाता है और यह पूंजी महानगरों के इर्द-गिर्द ही घूमती रह जाती है। यानी खाने-खर्च करने के इस दौर में मल्टीप्लेक्स भी उन्हीं और बड़े शहरों में पनप रहे हैं, जो पूंजीवाद की मौजूदा अवधारणा और चलन के साथ तारतम्य जोड़े हुए हैं। लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि बड़े शहरों के पुराने टॉकीज में एक बार में जहाँ चार-पाँच सौ लोग तक बैठते थे, अब मल्टीप्लेक्स के एक थिएटर में सौ-डेढ़ सौ लोग भी बमुश्किल बैठते हैं। यानी बड़े शहरों में भी इतने पूंजीवादी दबाव और आकर्षण के बावजूद सिनेमा का जनतंत्र छोटा हुआ है। चूँकि पूंजी भी यहीं हैं, लिहाजा यह जनतंत्र अपने छोटे-छोटे गुटों में बचकर अपना अस्तित्व बचाए हुए है। मल्टीप्लेक्स की अवधारणा भी दर्शकों को छोटे-छोटे समूहों में आकर्षित करने के लिए हुई और निश्चित तौर पर बड़े शहरों में सिनेमा को थिएटर के जरिए दिखाने और बचाने में इस अवधारणा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसका यह मतलब नहीं है कि सिनेमा के दर्शक कम हो गए हैं। अव्वल तो दर्शक हैं और बढ़े भी हैं। आज तकनीक विस्तार के दौर में अब ऐसे टेलीविजन सेट और मॉनीटर भी आ गए हैं कि घरों में भी थिएटर की साउंड तकनीक का आनंद उठाया जा सकता है। बड़े शहरों में जहाँ इस तकनीक का बोलबाला है तो छोटे शहरों में लोग अपने पुराने ही सही टेलीविजन मॉनीटर के सहारे सिनेमा का रसास्वादन कर रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में अगर जिला मुख्यालय तक सिनेमा हॉल बचे भी हैं तो उनके यहाँ फिल्म के हिट होने का पैमाना बदल गया है। अगर उनके यहाँ कोई फिल्म एक हफ्ते दोपहर और शाम का शो हाउसफुल चल गया तो फिल्म को कामयाब और हिट मान लिया जाता है। बदले दौर में फिल्म के रजत सप्ताह यानी 25 हफ्ते, स्वर्ण सप्ताह यानी 50 हफ्ते, हीरक सप्ताह यानी 60 हफ्ते और प्लेटिनम सप्ताह यानी 75 हफ्ते चलने का पैमाना काफी पीछे छूट गया है। बेशक ये पैमाने बदल गए हैं, इसके बावजूद कस्बों के सिनेमा हॉल दर्शकों की कमी के चलते अपने आँसू बहाने को मजबूर हैं। इस बीच फिल्मों का दर्शक वर्ग बढ़ा है लेकिन बढ़ती साक्षरता ने फिल्मों के पागलपन के हद तक का क्रेज खत्म कर दिया है। अब किसी देव आनंद की लचीली चाल पर कोई सुंदरी बेहोश नहीं होती। अब किसी राजेश खन्ना को खून से चिट्ठियाँ नहीं लिखी जातीं। भविष्य में भी शायद ही ऐसा हो। तो क्या यह मान लिया जाए कि सिनेमा का दर्शक भी कोरी भावुकता के दौर से आगे निकलकर परिपक्व हो चुका है। एक हद तक इस सवाल का जवाब हाँ में है। इसीलिए अब कोरी भावुकता की बजाय तर्कों वाली फिल्मों की माँग भी बढ़ी है। आज का दर्शक फिल्म के लिए खर्च की गई एक-एक पाई का हिसाब चाहता है। ऐसे में तो सिनेमा हॉल आँसू बहाते हैं तो बहाते रहें।
(लेखक चर्चित टीवी पत्रकार एवं स्तंभ लेखक हैं)